छत्तीसगढ़। कभी छत्तीसगढ़ के जंगलों में लाल आतंक के बीज बोया करते थे। एक दिन अचानक आतंक और हिंसा से इनका मोह भंग हुआ और बंदूक छोड़कर समाज की मुख्यधारा में शामिल होने की ठानी। कच्ची उमर में नक्सलियों के साथ बंदूक थामने वाले इन लोगों ने जीवन जीने के लिए कोई और तरीका सीखा ही नहीं था। सवाल यह था कि आत्मसमर्पण के बाद जीविकोपार्जन के लिए क्या करें। राज्य सरकार की आत्मसमर्पण नीति ने इन्हें एक राह दिखाई और आज यह अपने बूते पर खड़े होकर आत्मसम्मान की जिंदगी जी रहीं हैं।
हम बात कर रहे हैं राजनांदगांव जिले के उन पूर्व नक्सलियों की, जिन्होंने आत्मसमर्पण के बाद मशरूम उत्पादन के जरिए अपनी जिंदगी को एक नई दिशा दी है। इस काम में पुलिस विभाग और वन विभाग के जरिए उन्हें मदद मिल रही है। उन्हें इस काम का अच्छा रिस्पांस भी मिल रहा है। खास बात यह है कि इनके द्वारा उत्पादन किए जाने वाले मशरुम को बेचने के लिए बाजार तक भी लाना नहीं पड़ रहा है। क्योंकि फसल के तैयार होते ही स्टॉफ के लोग उत्पादन वाली जगह से ही हाथों हाथ खरीद ले रहे है। इस तरह मुख्यधारा में लौट कर सरेंडर नक्सलियों बिना भेदभाव वाला काम मिल रहा है, वही उनकी आर्थिक स्थिति भी मजबूत हो रही है।
पुलिस नक्सल ऑपरेशन शाखा से मिली जानकारी के अनुसार मशरुम उत्पादन का काम वर्ष 2019 शुरू किया गया है। पुलिस कंट्रोल रूम के पास पीछे हिस्से में सरेंडर नक्सली मशरुम का उत्पादन कर रहे है। इससे पहले सरेंडर नक्सलियों को पुलिस प्रशासन द्वारा मशरुम उत्पादन पर विशेष प्रशिक्षण दिया गया है। इस प्रशिक्षण के बाद आधा दर्जन से ज्यादा सरेंडर महिला नक्सली मशरूम उत्पादन कर रहीं हैं।
मशरूम की फसल बीज डालने के करीब 22 दिन के भीतर बाजार में बेचने लायक हो जाता है। इसी वर्ष शुरू हुआ मशरुम उत्पादन फिलहाल कम क्षेत्रफल में किया जा रहा है। यही वजह है कि फिलहाल रोजाना करीब 3 किलो मशरुम का उत्पादन हो रहा है। जो करीब 200 रूपए प्रति किलो के हिसाब से ब्रिकी हो रही है। मशरुम उत्पादन में रुचि बढ़ने के बाद इसका दायरा भी बढ़ाया जा सकता है। खास बात यह है कि सभी को अलग-अलग उत्पादन करने की सुविधा भी मिल रही है। इसमें सरेंडर महिला नक्सली समेत पुरुष भी सहयोग कर रहे है।
(साभार- अरुण कुमार सिंह)
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